Bandhan
एक शुबह मेरे जीवन में , अलसाई सी आई थी कुहरा घना छाया था, उसमे बदली भी घिर आई थी शयद मेरा मन भी उस दिन, दुखी था या घबराया था बारिष की बूंदा बंदी ने सोच का पर्त हटाया था तेज हवा का झोंका खाकर बादल जब लहराया था तो जीवन अपना व्यर्थ लगा था, जेल नजर घर आया था सरे रिश्ते जंजीरों से जकड़े मुझको जाती थी सर्द हवा का झोंका खाकर आंखे नाम हो आती थी पता नहीं मै, कब और कैसे घर से बहार निकल चला चेतना लौटी तब जब मेरे सामने कोई नदी मिला मुक्त नदी की जलधारा ने हूक उठा दी एक मन में काश नदी होता मै भी तो क्यों परता जगबंधन में तभी अचानक मन में मेरे नाम नदी का याद आया विजली चमकी कही दूर में और किनारा थर्राया तभी कही से मुझे नदी के बंधन का एहसास हुआ तटों से लरकर नदी के लहरे लौट के जब निराश हुआ बंधन बिन अस्तित्व कहा क्या बंधन कभी भी हरा है ? नदी तभी तक नदी है जबतक दोनों ओर किनारा है मुक्त होने की छह में उसने सैकरों वर्ष गुजारा है कभी गिराया चट्टानों को कभी तटों से हारा है जिसे तोरकर बहना चाहती, क्या वह मात्र